Monday, 24 April 2017

शरभपुरी राजवंश का शासन ( CGPSC )

छत्तीशगढ़ जो प्राचीन काल में दक्षिण कोसल कहलाता था, भारतीय इतिहास् से सम्बन्ध था । मुख्य रूप से पहाड़ी व् जंगली इलाका होने के कारण इस छेत्र एक छत्र शास्न करना मुश्किल था । ऐसी स्थिति में सामन्ती व्यवस्था अपनायी गई थी। लगभग 11 दशकों से शासन करने के वाले शरभपुरी वंश का यहाँ के इतिहास निर्माण में महत्व पूर्ण भूमिका रही है। इन ग्यारह दशको में 8 शासको ने शासन किया। इनकी राजधानी शरभपुर थी।

शरभ वंश का संस्थापक शरभ राज को माना जाता है । ताम्र पत्रो में इससे ही वंश क्रम का प्रारंभ बताया है इनके ताम्र पत्रो में सही काल नहीं दर्शाया गया है। शरभ पूरी शासक किसी के अधीन नहीं थे क्यों की उन्होंने किसी अन्य राजा के संवत् को नहीं स्वीकारा ।

शरभ पुरियो की विशेषता थी की वे यही के स्थानीय व्यक्ति थे।
पहले वाकाटकों के सामन्त बनकर कार्य कर रहे थे फिर वाकाटक परिवार में पारिवारिक झगडे का लाभ उठाकर स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया
गुप्तो से सम्बन्ध मधुर बनाकर रखे यधपि राजा महेंद्र को गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त  ने परास्त क्रर फिर से राज्य वापिस कर दिया । वैष्णव  धर्म के अनुयायी शरभपुरियो ने ताम्रपत्रों में अपने आप को परम् भागवत लिखा ।

वे संस्कृत और ब्राह्मणों को महत्त्व देते थे। राजा प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी था , एमजीआर तानाशाह नही था ।
ताम्रपत्रों के द्वारा राजा दान देता था ।ये ताम्रपत्र ही शरभपुरियो के इतिहास को बतलाने वाले महत्वपूर्ण साधन हैं प्रशासन कि सबसे छोटी इकाई ग्राम थी । भोग या भुक्ति को वर्तमान में तहसील का पर्यावाची मान सकते है। अहर जिले को कहा जाता था।

शरभपुरियो कि राजमुद्रा गजलक्ष्मी थी जो इनके ताम्र पत्रो और सिक्को में अंकित है।

Saturday, 22 April 2017

राजर्षि तुल्य कुल राजवंश (CGPSC MAINS )

दक्षिण कोशल पर राज करने वाले राजर्षि तुल्य वंश के बारे में आरंग के ताम्र पत्र से जानकारी मिलती है रायपुर से लगभग 30 किमी दूर आरंग से जो ताम्र पत्र प्राप्त हुआ है उसमे इस वंश के 6 शासको के बारे में जानकारी मिली है और यह जानकारी नामोउल्लेख तक ही सिमित है राजर्षि कुल के अंतिम शासक ने यह ताम्रपत्र सुवर्ण नदी के किनारे से जारी किया था ।

ताम्र पत्र में जानकारी के अनुसार इस वंश का पहला शासक शूरा था , जिसके नाम पर इस राजवंश को शूरा राजवंश भी कहाँ जाता है ।

सुवर्ण नदी के बारे में इतिहासकारो के मध्य मतभेद है डॉ मिराशि के अनुसार यह जांजगीर जिले में बहने वाला सोन नाला है।
लेकिन डॉ हीरालाल काव्योपाध्याय  इसे अमरकंटक से निकलने वाली सोन नदी मानते है, और यह अनुमान सही प्रतीत होता है, क्योकि अमरकण्टक पुण्य छेत्र माना जाता है, और पुण्य छेत्र या उसके आस पास के नदी से ताम्र पत्र  जारी करने की प्रथा रही है।
 विद्वान ऐसा मानते है की समुद्रगुप्त के दक्षिण। अभियान के पश्चात की इस्थिति का लाभ उठा कर शूरा ने अपने राज्य की स्थापना की होगी , शूरा राजवंश के द्वारा  गुप्त संवत का प्रयोग किया जाना  इंगित करता है की वे गुप्तो के अधीन थे ,भले ही नाम मात्र के हो।

आरंग ताम्र पत्र के अनुशार राजर्षि वंशशवाली
1) शूरा
2) दयित प्रथम
3)विभीषण
4) भीमसेन प्रथम
5) दयित वर्मा द्वितीय
6) भीमसेन द्वितीय
इस ताम्र पत्र से न तो इनकी राजधानी का पता चलता है और न हीं राज्य विस्तार का । इस वंश की राजमुद्रा सिंह थी यह आरंग ताम्र पत्र से ज्ञात होता है।

राजबहादुर हीरालाल ने लिखा है - राजर्षि तुल्य कुल वाले कोई भी रहे हो , उनके ताम्र पत्र से यह बात तो सिद्ध है की महाकोशल में के मध्य स्थान रायपुर के आस पास सौ साल से अधिक समय तक उनका राज्य बना रहा ।

Friday, 21 April 2017

छत्तीसगढ़ में नल वंश के राजा (CGPSC MAIN S)

नल वंश के राजाओं के नाम

1) वराह राज  :  इनके राज्य में सुख समृद्धि थी तथा वराह राज एक स्वतंत्र शासक के रूप में बस्तर में शासन कर रहा था वराह राज के समृद्धि के कारण वाकाटक नरेश ने इस छेत्र के ओर आक्रमण कर दिया तथा मिरशि के अनुसार इस इलाके के कुछ भूभाग पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया । कोंडागांव जिले के ग्राम एडेगा से वरहराज  के कुल 29 सिक्के प्राप्त हुए है।

2) भवदत्त वर्मन : भवदत्त वर्मन ने गद्दी प्राप्त करने के पश्चात वाका टक साम्राज्य पर  आक्रमण किया , तथा तत्कालीन सम्राट नरेन्द्र सेन को परास्त किया। भवदत्त ने वाकाटकों की राजधानी नंदि वर्धन नांदेड पर अधिकार कर स्थापित कर लिया । भवदत्त वर्मन विजयी राजा था । उसके सम्राज्य के अंतर्गत बरार से लेकर कोरापुट तक का भाग आता था ।इसका आधार अमरावती जिले के मोराशि अंचल से प्राप्त भवदत्त का ताम्रपत्र है। ताम्रपत्र से ज्ञात होता है की उकी पत्नी का नाम अचाली भट्टारिक था । वाकाटकों के विजय अभियान में भवदत्त के साथ उनका ज्येष्ठ पुत्र अर्थपति था
भवदत्त वर्मन , भट्टारक की उपाधि धारण करने वाला इस अंचल का पहला शासक था । महा राज भट्टारक अर्थपति भवदत्त वर्मन यह नाम उसकी उपाधि के साथ जुडी हुई मिलती है।

3) महाराजा अर्थपति
पिता के उत्तराधिकार में उसे विस्तृत सम्राज्य प्राप्त हुआ था । साम्राज्य बरार से लेकर उड़ीसा तक फैला था । दक्षिण भारत के पल्लव राजाओं की तरह भट्टा रक की उपाधि धारण की थी । अर्थपति के पिता भवदत्त वर्मन ने दक्षिण  भारत के शक्तिशाली वाकाटकों को परास्त किया था । वाका टक इस अपमान को भूले नहीं थे और मौके की तलाश में थे । भवदत्त के मृत्यु के पश्चात तैयारी तेज हो गयी थी। नरेंद्र सेन के पौत्र पृथ्वी सेन दुइतिय ने मौका देख नलों पर आक्रमण कर दिया , अर्थपति बुरी तरह से परास्त हुआ । तथा बदले की आग में राजधानी पुष्कारी को नष्ट ब्रष्ट कर दिया ।



4) स्कंदवर्मा : अर्थपति की मृत्यु के बाद उसका भाई स्कंदवर्मा  पुष्कारी की राज गद्दी पर बैठा और नलों की शक्ति को पुनः बढ़ाया। पुष्कारी को फिर से बसाया और गौरव दिलाया ।
इस समय वाकाटकों के गद्दी पर पृथवी सेन के मृत्यु के पश्चात देव सेन बैठा था । देव सेन की कमजोरी का फायदा उठा कर स्कंदवर्मा ने विदर्भ के बहुत सारे भू भाग पर कब्ज़ा कर लिया और स्कन्द वर्मा वाकाटकों के लिए गम्भीर खतरा बन गया । पुष्कारी के पोङागढ़ बनने के सम्बन्ध में  सुन्दरलाल त्रिपाठी ने लिखा है वाका टक नरेश के नष्ठ विनष्ठ भस्मीभूत कर देने के पश्चात  पुष्कारी अथवा पुष्करगढ़ पोडगढ़ में परिवर्तित हो गया । चक्रकूट की आदिम जातियां विदग्ध शब्द के स्थान पर पोङा शब्द का व्यवहार करती है।स्कंधवर्मा ने नलों से खोये हुए राज्य को वाकाटको से वापिस पाकर बहुत प्रशिद्धि पाई । स्कंदवर्मा  ने पोडगड़ में विष्णु का मंदिर बनवाया । पोङा गड शिलालेख नलो का पहला शीला लेख है विजयी था । विजयी है और विजयी रहेगा , इन पंक्तियो के साथ पोडगड़ शिलालेख का प्रारम्भ होता है इस शिलालेख से पता चलता है की वह भवदत्त का पुत्र है शैव सम्प्रदाय से पुनः वैष्णव सम्प्रदाय का होना भी इसी लेख से ज्ञात होता है।




पश्चातवर्ती नल शासक

स्कन्दवर्मा के  पश्चात उसका पुत्र नंदन राज हुआ । उसकी शिक्षा दीक्षा नालंदा में हुई , फिर उसका  पोता पृथ्वी राज राजा हुआ ।
पृथ्वीराज का शासन काल अनुमानत 600 ई से 630 ई तक था  पृथ्वीराज ^ का पुत्र ^विरूपाक्ष और उसका पुत्र^ विलासतुंग हुआ । जिसने राजिम का विष्णु मंदिर बनवाया ।
राजिम अभी लेख में विरूपाक्ष और पृथवी राज के बारे में जानकारी मिलती है ।

पुलकेशिन 2 प्रशिद्धि चलुक्या नरेश था उसने उत्तर  भारत के हर्ष वर्धन को परास्त किया था । 609 ई से 642 तक उसका शाशन था । ऐसा प्रतीत होता है की नल उसकी अधीनता मानते थे।

Wednesday, 19 April 2017

नल वंश ( छत्तीसगढ़ का इतिहास ) (CGPSC MAINS )

वायुपुराण और ब्रम्हा पुराण में वर्णन है की नल वंसजो का कोशल में राज होगा । नल वंश के राजाओ ने अपना सम्बन्ध पांडव वंश के साथ  बड़ेगर्व से बताया । शिलालेखो , ताम्र पत्रों , तथा भूमि गर्भ से मिली सोने के मुद्रा आदि से चक्रकूट अर्थात बस्तर में नल राजवंश का प्रारंभिक  इतिहास सृजित हुआ । नलो को नैषद् प्रदेश का बताया गया है ,और वायु पुराण  के अनुशार नलो को कोशल और नैषद् दोनों का स्वामी  माना गया । दंडकारण्य में नल शासक पूरा युगीन है।
बस्तर अंचल में शाशन करने वाले नलो का शाशन बहुत बड़ा था । भंडारा , चाँदा , दुर्ग , बालाघाट , रायपुर , धमतरी , कांकेर , राजनांदगांव तक फैला था । डॉ, झा के अनुसार नलों ने घने जंगलो में संस्कृति और साम्राज्य का प्रचार प्रसार अत्यंत निष्ठा और सफलता पूर्वक किया ।

नलों का शासन कब प्रारंभ हुआ , कब तक था , उनकी राज्य सीमा कहाँ तक थी, इस पर विद्वानों में मत ऐक्य नहीं हैं।

350 ई में महकान्तर में व्याघ्रराज के शाशन होने का प्रमाण है इस तिथि के आस पास बस्तर में नल वंश के शाशन का प्रारम्भ माना जा सकता है।
ये नल पुष्करि के शासक के रूप में इतिहास में चर्चित और वर्णित है इनकी राजधानी पुष्करि थी । वर्तमान। बस्तर के सीमा से लगा पुष्करि नगर था
 राष्ट्रीय स्तर के स्तर के इतिहासकारो ने नल शासक भवदत्त वर्मन को ही महत्व दिया है, उसके पूर्व के शासको के बारे में कुछ नहीं लिखा गया ।
 S N  राजगुरु  और नविन साहू के अनुसार वृषध्वज पहला नल शासक था ।
डॉ kk झा ने  लिखा है- जब तक अन्यथा सिद्ध नहीं हो जाये यही मन कर चलना समा चीन प्रतीत होता है की महाकांतार का व्याघ्राज बस्तर कोरापुट अंचल का नल वंशीय राजा ही था और उसका शासन काल 350 ई के लगभग था ।